दिलीप ने शानदार अभिनय से अमर कर दिया मदन चोपड़ा का किरदार

मुंबई। बालीवुड सुपरस्टार शाहरुख खान की ‘बाजीगर’ में दर्शकों ने पहली बार देखा कि खलनायक कोई बाहुबलि नहीं, बल्कि एक सूट-बूट वाला, ताकतवर बिजनेसमैन भी हो सकता है। भारतीय सिनेमा में साल 1993 एक ऐसा दौर था, जब नायक और खलनायक की परिभाषा हमेशा के लिए बदल गई। यह किरदार था मदन चोपड़ा, जिसे अभिनेता दिलीप ताहिल ने अपने शानदार अभिनय से अमर कर दिया। उनके चेहरे की शालीनता और आंखों में झलकती क्रूरता ने इस किरदार को भारतीय सिनेमा के सबसे यादगार विलेन में बदल दिया। उन्होंने अपने करियर की शुरुआत श्याम बेनेगल की फिल्म ‘अंकुर’ से की, लेकिन शुरुआती संघर्ष ने उन्हें मजबूती दी। छह साल तक बड़े रोल का इंतजार करने के बाद 1980 में उन्हें रमेश सिप्पी की ‘शान’ में मौका मिला। इसके बाद ‘गांधी’ जैसी अंतरराष्ट्रीय फिल्म ने उन्हें वैश्विक मंच तक पहुंचाया।
‘कयामत से कयामत तक’ में जूही चावला के पिता के रूप में उनके अभिनय ने उन्हें एक बहुमुखी कलाकार साबित किया। फिर आया वह मोड़ जिसने उनके करियर की दिशा बदल दी ‘बाजीगर’। मदन चोपड़ा का किरदार नब्बे के दशक में कॉर्पोरेट विलेन का प्रतीक बन गया। इसके बाद उन्होंने ‘डर’, ‘इश्क’, ‘जुड़वा’, ‘राम लखन’ और ‘कहो ना प्यार है’ जैसी 100 से अधिक फिल्मों में प्रभावशाली भूमिकाएं निभाईं। दिलीप ताहिल ने अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। भारत लौटने के बाद उन्होंने ‘भाग मिल्खा भाग’ में पंडित नेहरू की भूमिका निभाई, जिसे उन्होंने अपने करियर की सबसे संतोषजनक भूमिका कहा। आज भी थिएटर उनका पहला प्यार है।
बता दें कि 30 अक्टूबर 1952 को आगरा में जन्मे दिलीप ताहिल फिल्मों में हीरो बनने का सपना लेकर आए थे, लेकिन किस्मत ने उन्हें सिनेमा के सबसे भरोसेमंद खलनायकों में से एक बना दिया। उनके पिता भारतीय वायुसेना में पायलट थे, इसलिए बचपन देश के अलग-अलग हिस्सों में गुजरा। लखनऊ में पले-बढ़े दिलीप ने कुछ समय तक पायलट बनने की ट्रेनिंग भी ली, मगर उनका दिल थिएटर की ओर खिंच गया। कॉलेज के दिनों में ही वह मंच से जुड़े और एलेक पदमसी व पर्ल पदमसी जैसे नामचीन थिएटर कलाकारों से प्रेरणा ली।