50°C के करीब पहुंचा तापमान, IMD की रिपोर्ट ने खोली जलवायु बदलाव की सच्चाई

ग्लोबल वार्मिंग के चलते मौसम चक्र बिगड़ा है। देश ही नहीं, पूरी दुनिया में इसका असर स्पष्ट दिखने लगा है। गर्मियों के दौरान भारत में चलने वाली गर्म हवाएं या लू की लपटों की न सिर्फ तीव्रता बढ़ी है, बल्कि लू वाले दिनों की संख्या भी बढ़ी है तथा यह और भी जानलेवा हुई है। पहाड़ी क्षेत्र को छोड़कर कमोवेश देश का पूरा हिस्सा लू की चपेट में रहता है।

जाहिर तौर पर इससे बीमार होने होने वाले या असमय मरने वालों की संख्या ज्यादा होगी, लेकिन इन आंकड़ों को जानने का कोई आधिकारिक मंच नहीं है। यह विडंबना ही है कि जन-स्वास्थ्य से जुड़े इस गंभीर मसले को लेकर अलग-अलग संस्थाएं अलग-अलग आंकड़े पेश करती हैं।

सही संख्या जानना कितना चुनौतीपूर्ण
हीटस्ट्रोक या गर्मी से संबंधित मौतों की निगरानी के स्त्रोतों में से कोई भी अकेले पूरी तरह से स्पष्ट तस्वीर पेश नहीं करता है। नीति निर्माण के लिए इन मौतों की वास्तविक संख्या जानना महत्वपूर्ण तो है, मगर स्वास्थ्य मंत्रालय के दिशा-निर्देशों के बावजूद ऐसी मौतों की पुष्टि करना मुश्किल है।

निगरानी प्रणाली अक्सर अन्य संक्रामक और गैर-संक्रामक रोगों के वास्तविक मामलों का केवल एक अंश ही पकड़ पाती है। डाटा संग्रह में एक बड़ी चुनौती इलेक्ट्रानिक रिकॉर्ड सिस्टम की अनुपस्थिति है। स्वास्थ्य सुविधाएं अभी भी मैन्युअल रूप से डाटा दर्ज करती हैं। गर्मी से संबंधित मौतों की पुष्टि करना पहले से ही मुश्किल है और मैन्युअल डाटा प्रविष्टि सटीक रिपोर्टिंग को और भी कठिन बना देती है।

मौतों की निगरानी के तीन प्रमुख स्त्रोत
हीटस्ट्रोक या गर्मी से संबंधित मौतों की निगरानी के फिलहाल तीन प्रमुख स्त्रोत हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र (एनसीडीसी) और गृह मंत्रालय के तहत राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) का मीडिया में भी सर्वाधिक उल्लेख होता है।
भारतीय मौसम विभाग (आइएमडी) भी अपनी वार्षिक रिपोर्ट में ''हीटवेव'' के कारण होने वाली मौतों के आंकड़े देता है जो मुख्य रूप से मीडिया कवरेज से प्राप्त होते हैं। हालांकि, ये तीनों स्त्रोत व्यापक रूप से भिन्न संख्याएं बताते हैं।

आंकड़ों की जुबानी : हकीकत व फसाना
आरटीआइ के जरिए स्वास्थ्य मंत्रालय से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, एनसीडीसी द्वारा प्रबंधित एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम (आइडीएसपी) के तहत 2015 और 2022 के बीच गर्मी से संबंधित 3,812 मौतें दर्ज की गईं। 
इसके विपरीत, इसी अवधि के दौरान एनसीआरबी के आंकड़े ''गर्मी/सनस्ट्रोक'' से 8,171 मौतें बताते हैं। इन आंकड़ों का उल्लेख केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने भी संसद में कई बार किया है। मगर, आइएमडी की वार्षिक रिपोर्ट में 2015 और 2022 के बीच ''हीटवेव'' के कारण 3,436 मौतें दर्ज की गई हैं।

एनसीडीसी और आइएमडी ने 2023 और 2024 के आंकड़े पहले ही जारी कर दिए हैं, लेकिन एनसीआरबी ने अभी तक इन वर्षों के आंकड़े प्रकाशित नहीं किए हैं। * 2015 से स्वास्थ्य मंत्रालय अप्रैल से जुलाई तक गर्मी से होने वाली बीमारियों और मौतों के बारे में डाटा एकत्र कर रहा है। 2019 में इसे मार्च से जुलाई तक बढ़ा दिया गया, जिसमें 23 राज्य शामिल थे।

एनसीआरबी ने 1995 से हीटस्ट्रोक से होने वाली मौतों को रिकार्ड किया है और 2010 से उन्हें ''प्राकृतिक आपदाओं से होने वाली आकस्मिक मौतों'' के रूप में सूचीबद्ध किया है।
एनसीआरबी के अनुसार, 2022 में ''हीट/सनस्ट्रोक'' से 730 लोगों की मौत हुई, जबकि 2021 में 374 और 2020 में 530 लोगों की जान गई।

इसके विपरीत, एनसीडीसी के आंकड़ों के अनुसार, 2022 में गर्मी से संबंधित केवल 33 मौतें हुईं, 2021 में कोई नहीं और 2020 में चार मौतें हुईं। कई राज्य अपने आंकड़े बताने में विफल रहे।

ग्रीनपीस साउथ एशिया के डिप्टी प्रोग्राम डायरेक्टर अविनाश चंचल ने गर्मी से संबंधित मौतों को दर्ज करने के तरीके में तत्काल सुधार की मांग की है। उन्होंने कहा कि विभागों के बीच विसंगतियां और व्यापक रूप से कम रिपोर्टिंग का मतलब है कि अत्यधिक गर्मी से होने वाली मौतों का वास्तविक आंकड़ा अक्सर छिपा रहता है।

सरकार को यह समझना चाहिए कि वास्तविक आंकड़ों को छिपाने या अनदेखा करने से गर्मी से निपटने के लिए आवश्यक तत्काल कार्रवाई में देरी होती है। जब तक भारत अपनी खंडित डाटा प्रणाली को ठीक नहीं कर लेता, तब तक मृतकों की संख्या सिर्फ एक संख्या ही रहेगी या इससे भी बदतर यह कि उनकी गिनती ही नहीं की